Monday, July 28, 2025

सांपों को भी दूध पिलाते हैं मोदी

  




                सांपों को भी दूध पिलाते हैं मोदी

                         आचार्य श्रीहरि



प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मालदीव यात्रा से जुडी एक खबर बहुत ही लोमहर्षक है और भारत की अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक है, संाप को दूध पिलाने जैसी है, हिंसकों को संरक्षण और संवर्द्धन करने जैसी है, स्वयं के लिए भस्मासुर खड़े करने जैसी है और भारतीय हितों के खिलाफ है। हालांकि भारतीय मीडिया ने इस पर विचारण के लिए दूरदृष्टि नहीं अपनायी। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि वह खबर क्या है? खबर यह है कि मालदीव को भारत पांच हजार करोड़ रूपये की सहायता देगा, जिसकी घोषणा नरेन्द्र मोदी ने अपनी मालदीव यात्रा के दौरान की है। पांच हजार करोड़ रूपये कोई छोटी रकम नहीं है, यह बहुत बड़ी रकम है। इतनी बडी रकम मालदीव पर खर्च करने की जरूरत ही क्या है? इस विषय को हम किस दृष्टिकोण से देखे? 

              मालदीव हमारा पडोसी देश है और पडोसी देश भी सुख और शांति से रहे, इसकी इच्छा तो रखनी चाहिए। पर प्रश्न यह उठता है कि जो देश हमारे लिए बहुत ही खतरनाक साबित हो गया है, जिसके लिए धर्मनिरपेक्षता कोई अर्थ नहीं रह गयी है, जिसकी नीयत हिंसक हैं, आतंकी है और स्वयं को असफल देश के गर्त में ढकेलने में लगा रहता है उसके लिए इतनी बडी रकम खर्च करने का काम सिर्फ और सिर्फ भारत ही कर सकता है। दुनिया में सिर्फ भारत ही एक मात्र देश है जो अपने हिंसक और अलोकमांत्रिक पडोसी देशों को भी अरबों-खरबों रूपये देकर पालता है। जबकि चीन और अमेरिका जैसे देश कर्ज के मकडजाल में फंसा कर लूटते है और अपने हित सुरक्षित रखते हैं, विकसित करते हैं। चीन ने श्रीलंका को कर्ज देकर दिवालियां बना कर छोडा। चीन ने पाकिस्तान को भी कर्ज के दबाव में जकड चुका है। यूक्रेन की मदद के लिए अमेरिका ने खनिज संपदा समझौता किया है, जिसके तहत यूक्रेन के खनिज संपदाओं का दोहन अमेरिका करेगा। मालदीप तो एक विलुप्त होता देश है जो परजीवी है पर हिंसक और मजहबी मामलों में पाकिस्तान-सीरिया के रास्ते पर चल रहा है।

                 नरेन्द्र मोदी का ऐसा कदम सहानुभूति तो प्रकट कर सकता है, उन्हें लोग दयावन तो समझ सकते हैं, उन्हें पडोसियों को मिला कर, खुश रखकर चलने वाला शासक कह सकते हैं। लेकिन भारत की इस सहायता का सकरात्मक उपयोग होगा, जनपक्षीय उपयोग होगा, पारिस्थिति के संरक्षण में उपयोग होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। भारत के धन से मालदीव अपनी मजहबी मानसिकता का भी पोषण करेगा, आतंकियों का संरक्षण और उनका सवंर्द्धन भी कर सकता है? ऐसी समझ रखना कोइ गैर जरूरी बात नहीं हो सकती है। मालदीव को अब पर्यटन से होने वाली आय कम हो गयी हैे, इसलिए उसे मजहबी मानसिकता की तुष्टि के लिए और प्रचार-प्रसार के लिए अतिरिक्त धन की जरूरत है। इसीलिए मालदीव अपने आप को बदलने का नाटक कर रहा है और भारत के मित्र होने का दावा कर रहा है।

                  सच यह है कि मालदीव हमारा दोस्त भी नहीं है, मालदीव हमारे लिए अच्छा पडोसी भी नहीं है। मालदीव कोई आदर्श सूचक देश भी नहीं है। मालदीव मंें धर्मनिरपेक्षता भी नहीं है। पूरी आबादी मजहबी मानसिकता में विश्वास करती है। कुछ नाम मात्र के अन्य धर्म के लोग मालदीव में रहते हैं, उनका कोई मानवाधिकार का संरक्षण नहीं होता, उनकी धार्मिक मान्यताएं प्रतिबंधित हैं। इस्लाम की सहचर आबादी को छोड़ कर अन्य कोई आबादी अपनी धार्मिक मान्यताओं का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं कर सकता है। कहने का अर्थ यह है कि मालदीव पूरी तरह से इस्लामिक कट्टर मानसिकतों की हिंसक प्रवृति में कैद हो गया है। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और लेबनान, सीरिया जैसी मजहबी मानसिकताएं अपना प्रदर्शन करती हैं। वैश्विक मीडिया में कई अन्य हिंसक तथ्य भी अस्तित्व मे हैं। खासकर अमेरिकी मीडिया का कहना है कि अलकायदा और तालिबान के कई खतरनाक और हिंसक आतंकी मालदीव में संरक्षण लिये थे। अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार स्थापित हो गयी, इस कारण तालिबान के आतंकियों की अब मजबूरी समाप्त हो गयी, उनके मालदीव में रहने और सक्रिय होने की उम्मीद बहुत ही कम है। लेकिन पाकिस्तान को लेकर समस्याएं बहुत ही खतरनाक है और हिंसक है। पाकिस्तान की आईएसआई का मंकड जाल फैला हुआ है। आईएसआई के अधिकारी और जासूस मालदीव में बैठे हुए हैं और वे तय कर रहे हैं कि किसी भी स्थिति में मालदीव का इस्लामिक करण मजबूत रहे। आईएसआई का भारत के खिलाफ दृष्टिकोण और कारस्तानी भी जगजाहिर है। भारत के खिलाफ आईएसआई न केवल साजिशें रचती है बल्कि मालदीव की आबादी को भड़काती भी है। आईएसआई हमेशा भारतीय हितों को हिंसक ढंग से कुचलती है और कहती है कि भारत मालदीव का हिन्दूकरण करने जा रहा है और भारत मालदीव को अपना गुलाम बनाना चाहता है,इसलिए भारत का विरोध अनिवार्य है। मालदीव का सत्ता राजनीति आईएसआई का मोहरा है। 

              मालदीव ने भारत को कितने घाव दिये हैं, कितनी लातें मारी हैं, भारत के हितों को कितना कुचला है, भारत के सम्मान को कितना नुकसान पहुंचाया है? यह सब किसे नहीं मालूम है। मालदीव मे हमारा सैनिक अड्डा था। ऐसे मालदीव सैनिक अड्डे के लिए कोई खास महत्व नहीं रखता है। फिर भी हमारा सैनिक अड्डा था। हम उस सैनिक अड्डे का उपयोग अपने हितों की रक्षा करने के लिए कर रहे थे। खासकर चीन की सैनिक गतिविधियों और सक्रियता को लेकर हमारी चिंता रही है। चीन ने समुद्र में कई प्रकार की गतिविधियां, समस्याएं और अड़चने खडी की है। अपनी आधुनिक नौकाओं के माध्यम से चीन की नजर भारत की महत्वपूर्ण सैनिक अड्डो पर रही है। चीन अपनी आधुनिक नौकाओं के माध्यम से हमारी जासूसी भी करता है। इसलिए मालदीव में मजबूत भारतीय सेना का ठिकाना अति महत्वपूर्ण था। सबसे बडी बात सैनिक अड्डे पर विराजमान भारतीय सैनिक मालदीव की एकता और अखंडता के लिए कोई चुनौती नहीं थे। फिर भी पाकिस्तान और चीन को वह हमारा सैनिक अड्डा खटकता था। चीन और पाकिस्तान की के कहने पर मालदीव ने भारतीय सैनिक अड्डे को समाप्त करने के लिए भारत को बाध्य किया। भारत के खिलाफ हिंसक और तथ्यहीन बयानबाजी की गयी। कोई विकल्प न देखते हुए भारत की मोदी सरकार ने ही सैनिक अड्डे से अपने सैनिक हटाने का काम किया था। सबसे बडी बात मोदी की छवि और सम्मान पर कीचड उछालना और कूटनीतिक सम्मान को भूल जाना। नरेन्द्र मोदी कभी भी मालदीव के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला था। सिर्फ उसने अपने देश के पर्यटक स्थालों का प्रमोशन किया था। नरेन्द्र मोदी ने लक्ष्यद्वीप की यात्रा की थी। लक्ष्यद्वीप एक खूबखूरत पर्यटक स्थल है, उसकी खूबसूरती मालदीव के पर्यटक स्थलों से कम नहीं है। नरेन्द्र मोदी लक्ष्यद्वीप जाकर पर्यटक स्थलों का दर्शन कराया था। इस पर मालदीव की पूरी सरकार ही पागल हो गयी, हिंसक हो गयी, मालदीव सरकार में शामिल मंत्रियों ने नरेन्द्र मोदी को गालियां दी थी, नरेन्द्र मोदी को नीच कहा था और भारत को बर्बाद करने की धमकी पिलायी थी। इस कारण भारत में बहुत बडी प्रतिक्र्रिया हुई थी और कहा गया था कि क्या भारत के प्रधानमंत्री को अपने देश के पर्यटक स्थलों का दर्शन करना और दर्शन कराने का अधिकार नहीं है? इस दर्शन कार्यक्रम से मालदीव को हानि क्या है, उसकी विरोध की प्रक्रिया चीन और पाकिस्तान की कारस्तानी है। हजारों भारतीयों ने प्रतिक्रिया दिखायी थी और मालदीव घूमने के टिकट भी रद कराये थे। इसके बाद मालदीव के पर्यटन बाजार में मंदी आ गयी थी और भारत के प्रति सम्मान दर्शाना शुरू कर दिये थे।

                भारत सिर्फ मालदीव ही नहीं बल्कि बांग्लादेश, नेपाल और श्रींलंका जैसे विरोधी पडोसियों को भी मदद देकर पालन पोषण करता है, उन देशों की आबादी की भूख मिटाता है। नेपाल का माओवाद भारत विरोधी रहा है, चीन का गुलाम रहा है। नेपाल का कम्युनिस्ट शासन हमेशा से भारत के हितों का संहार करता है और सरेआम भारत के खिलाफ सक्रियता दिखाता है पर चीन की वह गुलामी करता है। श्रीलंका ने भी कभी भारत विरोध की कूटनीति अपनायी थी। श्रीलंका भारत के विरोध में चीन की गोद में जा बैठा था। चीन ने खूब कर्ज दिया। चीनी कर्ज में डूब कर श्रीलंका दिवालिया हो गया, बर्बाद हो गया। बर्बाद, तबाह और दिवालिया होने के बाद चीन ने श्रीलंका से मुंह मोड लिया और अपना कर्ज मांगना शुरू कर दिया। फिर श्रीलंका भारत के शरण में आया। नरेन्द्र मोदी ने श्रीलंका की मदद कर उसकी आबादी की भूख की समस्या को दूर करने में मदद किया। बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था भी भारत की मदद पर टिकी हुई थी। मदद कर दुश्मन खडा करना कोई मोदी से सीखें।


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आचार्य श्रीहरि

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Sunday, July 27, 2025

मदद देकर दुश्मन खड़ा करना कोई मोदी से सीखें

  


   मदद देकर दुश्मन खड़ा करना कोई मोदी से सीखें

                   आचार्य श्रीहरि

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मालदीव यात्रा से जुडी एक खबर बहुत ही लोमहर्षक है और भारत की अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक है, संाप को दूध पिलाने जैसी है, हिंसकों को संरक्षण और संवर्द्धन करने जैसी है, स्वयं के लिए भस्मासुर खड़े करने जैसी है और भारतीय हितों के खिलाफ है। हालांकि भारतीय मीडिया ने इस पर विचारण के लिए दूरदृष्टि नहीं अपनायी। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि वह खबर क्या है? खबर यह है कि मालदीव को भारत पांच हजार करोड़ रूपये की सहायता देगा, जिसकी घोषणा नरेन्द्र मोदी ने अपनी मालदीव यात्रा के दौरान की है। पांच हजार करोड़ रूपये कोई छोटी रकम नहीं है, यह बहुत बड़ी रकम है। इतनी बडी रकम मालदीव पर खर्च करने की जरूरत ही क्या है? इस विषय को हम किस दृष्टिकोण से देखे? 

              मालदीव हमारा पडोसी देश है और पडोसी देश भी सुख और शांति से रहे, इसकी इच्छा तो रखनी चाहिए। पर प्रश्न यह उठता है कि जो देश हमारे लिए बहुत ही खतरनाक साबित हो गया है, जिसके लिए धर्मनिरपेक्षता कोई अर्थ नहीं रह गयी है, जिसकी नीयत हिंसक हैं, आतंकी है और स्वयं को असफल देश के गर्त में ढकेलने में लगा रहता है उसके लिए इतनी बडी रकम खर्च करने का काम सिर्फ और सिर्फ भारत ही कर सकता है। दुनिया में सिर्फ भारत ही एक मात्र देश है जो अपने हिंसक और अलोकमांत्रिक पडोसी देशों को भी अरबों-खरबों रूपये देकर पालता है। जबकि चीन और अमेरिका जैसे देश कर्ज के मकडजाल में फंसा कर लूटते है और अपने हित सुरक्षित रखते हैं, विकसित करते हैं। चीन ने श्रीलंका को कर्ज देकर दिवालियां बना कर छोडा। चीन ने पाकिस्तान को भी कर्ज के दबाव में जकड चुका है। यूक्रेन की मदद के लिए अमेरिका ने खनिज संपदा समझौता किया है, जिसके तहत यूक्रेन के खनिज संपदाओं का दोहन अमेरिका करेगा। मालदीप तो एक विलुप्त होता देश है जो परजीवी है पर हिंसक और मजहबी मामलों में पाकिस्तान-सीरिया के रास्ते पर चल रहा है।

                 नरेन्द्र मोदी का ऐसा कदम सहानुभूति तो प्रकट कर सकता है, उन्हें लोग दयावन तो समझ सकते हैं, उन्हें पडोसियों को मिला कर, खुश रखकर चलने वाला शासक कह सकते हैं। लेकिन भारत की इस सहायता का सकरात्मक उपयोग होगा, जनपक्षीय उपयोग होगा, पारिस्थिति के संरक्षण में उपयोग होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। भारत के धन से मालदीव अपनी मजहबी मानसिकता का भी पोषण करेगा, आतंकियों का संरक्षण और उनका सवंर्द्धन भी कर सकता है? ऐसी समझ रखना कोइ गैर जरूरी बात नहीं हो सकती है। मालदीव को अब पर्यटन से होने वाली आय कम हो गयी हैे, इसलिए उसे मजहबी मानसिकता की तुष्टि के लिए और प्रचार-प्रसार के लिए अतिरिक्त धन की जरूरत है। इसीलिए मालदीव अपने आप को बदलने का नाटक कर रहा है और भारत के मित्र होने का दावा कर रहा है।

                  सच यह है कि मालदीव हमारा दोस्त भी नहीं है, मालदीव हमारे लिए अच्छा पडोसी भी नहीं है। मालदीव कोई आदर्श सूचक देश भी नहीं है। मालदीव मंें धर्मनिरपेक्षता भी नहीं है। पूरी आबादी मजहबी मानसिकता में विश्वास करती है। कुछ नाम मात्र के अन्य धर्म के लोग मालदीव में रहते हैं, उनका कोई मानवाधिकार का संरक्षण नहीं होता, उनकी धार्मिक मान्यताएं प्रतिबंधित हैं। इस्लाम की सहचर आबादी को छोड़ कर अन्य कोई आबादी अपनी धार्मिक मान्यताओं का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं कर सकता है। कहने का अर्थ यह है कि मालदीव पूरी तरह से इस्लामिक कट्टर मानसिकतों की हिंसक प्रवृति में कैद हो गया है। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और लेबनान, सीरिया जैसी मजहबी मानसिकताएं अपना प्रदर्शन करती हैं। वैश्विक मीडिया में कई अन्य हिंसक तथ्य भी अस्तित्व मे हैं। खासकर अमेरिकी मीडिया का कहना है कि अलकायदा और तालिबान के कई खतरनाक और हिंसक आतंकी मालदीव में संरक्षण लिये थे। अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार स्थापित हो गयी, इस कारण तालिबान के आतंकियों की अब मजबूरी समाप्त हो गयी, उनके मालदीव में रहने और सक्रिय होने की उम्मीद बहुत ही कम है। लेकिन पाकिस्तान को लेकर समस्याएं बहुत ही खतरनाक है और हिंसक है। पाकिस्तान की आईएसआई का मंकड जाल फैला हुआ है। आईएसआई के अधिकारी और जासूस मालदीव में बैठे हुए हैं और वे तय कर रहे हैं कि किसी भी स्थिति में मालदीव का इस्लामिक करण मजबूत रहे। आईएसआई का भारत के खिलाफ दृष्टिकोण और कारस्तानी भी जगजाहिर है। भारत के खिलाफ आईएसआई न केवल साजिशें रचती है बल्कि मालदीव की आबादी को भड़काती भी है। आईएसआई हमेशा भारतीय हितों को हिंसक ढंग से कुचलती है और कहती है कि भारत मालदीव का हिन्दूकरण करने जा रहा है और भारत मालदीव को अपना गुलाम बनाना चाहता है,इसलिए भारत का विरोध अनिवार्य है। मालदीव का सत्ता राजनीति आईएसआई का मोहरा है। 

              मालदीव ने भारत को कितने घाव दिये हैं, कितनी लातें मारी हैं, भारत के हितों को कितना कुचला है, भारत के सम्मान को कितना नुकसान पहुंचाया है? यह सब किसे नहीं मालूम है। मालदीव मे हमारा सैनिक अड्डा था। ऐसे मालदीव सैनिक अड्डे के लिए कोई खास महत्व नहीं रखता है। फिर भी हमारा सैनिक अड्डा था। हम उस सैनिक अड्डे का उपयोग अपने हितों की रक्षा करने के लिए कर रहे थे। खासकर चीन की सैनिक गतिविधियों और सक्रियता को लेकर हमारी चिंता रही है। चीन ने समुद्र में कई प्रकार की गतिविधियां, समस्याएं और अड़चने खडी की है। अपनी आधुनिक नौकाओं के माध्यम से चीन की नजर भारत की महत्वपूर्ण सैनिक अड्डो पर रही है। चीन अपनी आधुनिक नौकाओं के माध्यम से हमारी जासूसी भी करता है। इसलिए मालदीव में मजबूत भारतीय सेना का ठिकाना अति महत्वपूर्ण था। सबसे बडी बात सैनिक अड्डे पर विराजमान भारतीय सैनिक मालदीव की एकता और अखंडता के लिए कोई चुनौती नहीं थे। फिर भी पाकिस्तान और चीन को वह हमारा सैनिक अड्डा खटकता था। चीन और पाकिस्तान की के कहने पर मालदीव ने भारतीय सैनिक अड्डे को समाप्त करने के लिए भारत को बाध्य किया। भारत के खिलाफ हिंसक और तथ्यहीन बयानबाजी की गयी। कोई विकल्प न देखते हुए भारत की मोदी सरकार ने ही सैनिक अड्डे से अपने सैनिक हटाने का काम किया था। सबसे बडी बात मोदी की छवि और सम्मान पर कीचड उछालना और कूटनीतिक सम्मान को भूल जाना। नरेन्द्र मोदी कभी भी मालदीव के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला था। सिर्फ उसने अपने देश के पर्यटक स्थालों का प्रमोशन किया था। नरेन्द्र मोदी ने लक्ष्यद्वीप की यात्रा की थी। लक्ष्यद्वीप एक खूबखूरत पर्यटक स्थल है, उसकी खूबसूरती मालदीव के पर्यटक स्थलों से कम नहीं है। नरेन्द्र मोदी लक्ष्यद्वीप जाकर पर्यटक स्थलों का दर्शन कराया था। इस पर मालदीव की पूरी सरकार ही पागल हो गयी, हिंसक हो गयी, मालदीव सरकार में शामिल मंत्रियों ने नरेन्द्र मोदी को गालियां दी थी, नरेन्द्र मोदी को नीच कहा था और भारत को बर्बाद करने की धमकी पिलायी थी। इस कारण भारत में बहुत बडी प्रतिक्र्रिया हुई थी और कहा गया था कि क्या भारत के प्रधानमंत्री को अपने देश के पर्यटक स्थलों का दर्शन करना और दर्शन कराने का अधिकार नहीं है? इस दर्शन कार्यक्रम से मालदीव को हानि क्या है, उसकी विरोध की प्रक्रिया चीन और पाकिस्तान की कारस्तानी है। हजारों भारतीयों ने प्रतिक्रिया दिखायी थी और मालदीव घूमने के टिकट भी रद कराये थे। इसके बाद मालदीव के पर्यटन बाजार में मंदी आ गयी थी और भारत के प्रति सम्मान दर्शाना शुरू कर दिये थे।

                भारत सिर्फ मालदीव ही नहीं बल्कि बांग्लादेश, नेपाल और श्रींलंका जैसे विरोधी पडोसियों को भी मदद देकर पालन पोषण करता है, उन देशों की आबादी की भूख मिटाता है। नेपाल का माओवाद भारत विरोधी रहा है, चीन का गुलाम रहा है। नेपाल का कम्युनिस्ट शासन हमेशा से भारत के हितों का संहार करता है और सरेआम भारत के खिलाफ सक्रियता दिखाता है पर चीन की वह गुलामी करता है। श्रीलंका ने भी कभी भारत विरोध की कूटनीति अपनायी थी। श्रीलंका भारत के विरोध में चीन की गोद में जा बैठा था। चीन ने खूब कर्ज दिया। चीनी कर्ज में डूब कर श्रीलंका दिवालिया हो गया, बर्बाद हो गया। बर्बाद, तबाह और दिवालिया होने के बाद चीन ने श्रीलंका से मुंह मोड लिया और अपना कर्ज मांगना शुरू कर दिया। फिर श्रीलंका भारत के शरण में आया। नरेन्द्र मोदी ने श्रीलंका की मदद कर उसकी आबादी की भूख की समस्या को दूर करने में मदद किया। बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था भी भारत की मदद पर टिकी हुई थी। मदद कर दुश्मन खडा करना कोई मोदी से सीखें।


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Thursday, July 24, 2025

धनखड़ की वीरता, निडरता और सक्रियता आईकाॅन बनने चाहिए

 


 







धनखड़ की वीरता, निडरता और सक्रियता आईकाॅन बनने चाहिए


                     आचार्य श्रीहरि



जगदीप धनखड़ का इस्तीफा एक पहले बन गयी है। मिजाज से हटकर उनका इस्तीफा। मीडिया भी इस्तीफे की पहेली को भेदने में नाकामी हासिल की है, राजनीति भी इसके बंद पर्दे को खोलने में नाकाम रही है। मीडिया और राजनीति के लिए यह प्रसंग भी अटकलबाजियों जैसा रहा। जबकि सच्चाई यह है कि मीडिया और राजनीति ग्यारह सालों में नरेन्द्र मोदी के किसी भी नीति और कदम का राज न जान सकी और न ही उनके कदम का कोई चाकचैबंद अनुमान लगा सकी  इस्तीफा देकर भागना उनका स्वभाव नहीं था। अचानक घटी अदृश्य घटनाएं इस्तीफा का कारण बनी हैं। लेकिन जितना आश्चर्यचकित करना वाला धनखड़ का इस्तीफा है उससे भी बढकर कांगेस और अन्य विपक्षी दलों का उमड़ा धनखड़ प्रेम है। धनखड को हटाने के लिए महाभियोग लाने वाली कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने धनखड के प्रति सहानुभूति जतायी है, उनके इस्तीफे के कारणों को लेकर आशंकाए भी जतायी है, पर्दे के पीछे घटी घटनाओं को जाहिर करने की मांग की है।

                    जगदीप धनखड के इस्तीफे के दो पक्ष हैं जिनके पास रहस्य-पहली का राज है। पहला पक्ष खुद धनखड हैं जिनके पास वह सच्चाई है जिसके कारण उन्होंने इस्तीफा दिया या फिर इस्तीफा  लिया गया। जबकि दूसरा पक्ष नरेन्द्र मोदी की सरकार है, नरेन्द्र मोदी का थींक टैंक ही जानती है कि धनखड से इस्तीफा क्यों लिया गया। हमारे जैसे स्वतत्र विचारकों का ख्याल और निष्कर्ष है कि यह स्वतंत्र और निष्पक्ष प्रक्रिया-कदम किसी भी परिस्थिति में नहीं है, स्वाभाविक तो माना ही नहीं जा सकता है। पर्दे के पीछे का कारण बहुत ही कठिन है, आश्चर्यचकित करने वाले कभी नहीं हैं, क्योकि नरेन्द्र मोदी ने अपने ग्यारह साल की सरकार की अवधि में किसी मंत्री को भी इस तरह से इस्तीफा देने के लिए नहीं कहा और न ही इस्तीफा देने के लिए बाध्य किया। मंत्रिमंडल विस्तार और कहीं अन्य जगहों पर उपयोग को ध्यान में ही रखकर किसी मंत्री से जगह खाली करायी गयी। धनखड़ का यह प्रकरण भविष्य मे अपना कमाल दिखा भी सकता है और राजनीति को प्रभावित भी कर सकता है।

                   धनखड़ की पहचान क्या थी? धनखड की उपलब्धियां क्या थी? धनखड़ को भविष्य में किस रूप में देखा जाना जा सकता है या फिर याद किया जा सकता है? नरेन्द्र मोदी के लिए धनखड कितना लाभ और कितना घाटे का दांव रहा है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर तलाशना मुश्किल नहीं है। धनखड को जिन जिम्मेदारियों के लिए कहा गया या सौंपी गयी उन जिम्मेदारियों का निर्वाहन में उन्होंने हीलाहवाली नहीं की थी, अकर्मण्यता नहीं दिखायी थी, अयाोग्यता नहीं दिखायी थी। रणछोड़ दास नहीं बने थे। निडरता दिखायी थी, वीरता दिखायी थी, आमने-सामने की लड़ाई लडी थी, संविधान और परमपरा को अपना हथ्यिार बनाया था और अपने इसी हथियार से अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों का निर्वाह्ण भी किया था। याद कीजिये उनकी राज्यपाल की जिम्मेदारी को, राज्यपाल की भूमिका को। राज्यपाल के रूप में उनकी जिम्मेदारी और भूमिका कोई असक्रिय नहीं थी, कोई ओझल नहीं थी, कोई रबर स्टाम्प वाली नहीं थी। वे एक सक्रिय और परिणामदायी भूमिका निभायी थी। राज्यपाल को ऐसे रबर स्टाम्प कहा जाता है, एक ऐसा मजबूर पद जो सिर्फ हस्ताक्षर कर सकता है, प्रस्तावित नियम-कानूनों पर वह निर्णायक कैंची नहीं चला सकता है। सबसे बडी बात पश्चिम बंगाल की राजनीतिक परिस्थितियों को लेकर है। ममता बनर्जी की अराजक और निरंकुश भूमिका कौन नहीं जानता है। नियम कानूनों को तोड़ना और संवैधानिक जिम्मेदारियों पर उदासीनता बरतना उसकी शख्सियत भी शामिल है। पश्चिम बंगाल में कई घोटोले हुए, घोटाले कुख्यात थे और लोमहर्षक भी थे, उसमें ममता बनर्जी के मंत्रिमंडल मे शामिल लोगों की भूमिका थी। अन्य घोटालों में ममता बनर्जी तक नाम आया। सीबीआई की टीम पर  टीएमसी के  लोगों ने हमले पर हमले किये। ममता बनर्जी सीबीआई के खिलाफ खुद धरने पर बैठ गयी थी। ममता बनर्जी के शासन काल में बांग्लादेशी घुसपैठियों की पौबारह थी, संरक्षण प्राप्त था। टीएमसी के गंुडे हिन्दुओं का संहार पर संहार कर रहे थे। ऐसी विकट परिस्थितियों में प्रभावित लोगों के लिए धनखड एक आशा की किरण के तौर पर स्थापित हुए थे। पश्चिम बंगाल सरकार के विरोध और अड़चनों और धमकियों की भी परवाह नहीं की थी और अपना कर्तव्य का निर्वाह्न उन्होंने चाकचैबंद ढंग से की थी। यही कारण था कि ममता बनर्जी ने एक बार नहीं बल्कि बार-बार धनखड की आलोचना की थी और संवैधानिक लक्ष्मण रेखा पार की थी। फिर भी केन्द्रीय सरकार के संरक्षक के तौर पर उनकी भूमिका शानदार थी और आईकाॅन की तरह थी। 

                 न्यायापलिका की स्वच्छंदता ही नहीं बल्कि तानाशाही चरम पर पहुंच गयी। न्यायपालिका एकाएक संविधान का तख्तापलट दिया और तानाशाही हो गयी। कह दिया कि मैं ही सर्वश्रेष्ठ हू, मेरे सामने विधायिका और कार्यपालिका का कोई भूमिका नहीं है, कोई हैसियत नहीं है, हमसे पूछे बिना किये गये विधायिका और कार्यपालिका के हर काम और नीति की हम समीक्षा करेगे। हम स्वयं ही नियुक्ति का अधिकार धारण करेंगे, इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं होगी, सरकार हमारी सिफारिशों पर सिर्फ मुहर लगायेगी। न्यायपालिका के लोग नेता की तरह काम करने लगे, वे भाषण देने जैसे काम करने लगे। ये झूठ और आधारहीन फैसले देंगे पर भी सत्यवादी बनते रहे हैं और इन पर कोई अंकुश नहीं होगा। कोई आलोचना नहीं करेगा, आलोचना करने वाले जेल की हवा खायेंगे। इस डर से कौन बोलेगा? यही कारण है कि नेता और अन्य संस्कृति के लोग न्यायपालिका के खिलाफ बोलने से भागते हैं। लेकिन धनखड ने गजब की निडरता दिखायी और गजब की वीरता दिखायी। न्यायपालिका को आलोचना का वाजिब शिकार बनाया, उनकी तानाशाही को चुनौती दी, उनकी रिश्वतखोरी की मानसिकता को चुनौती दी और आईना भी दिखाया। संसद ही सर्वश्रेष्ठ है। जब संविधान को संसद ने स्वीकृति दी है तो फिर संविधान को बदलने का अधिकार भी संसद को है। धनखड तो यही बात कह रहे थे। यशवंत वर्मा के घर पर करोड़ों रूपये पकडे गये, पुलिस और सुप्रीम कोर्ट की जांच में भी यह सच साबित हुआ फिर भी यशवंत वर्मा के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं हुई, सुप्रीम कोर्ट ने अपने संरक्षण से यशवंत वर्मा का बचाव किया है। संसद में महाभियोग लाना था। महाभियोग की प्रक्रिया चल रही थी। महाभियोग को लेकर धनखड की सक्रियता कुछ ज्यादा ही थी। धनखड की सक्रियता को कुछ लोग अति मान रहे थे। लेकिन न्यायपालिका की तानाशाही और निरंकुशता के खिलाफ किसी न किसी को आगे आकर बोलने का साहस करना ही पडेगा।

                मानवीय स्वभाव की समस्या और चुनौतियां कई अहर्ताओं को प्रभावित करती है। अति उत्साह का दांव उल्टा पड जाता है, कभी-कभी अति सक्रियता और उत्साह में कई लक्ष्मण रेखांए टूट जाती हैं, उदासीनता की शिकार हो जाती हैं, चुनौती और वर्चस्व स्थापित करने का खेल साबित हो जाती हैं। नरेन्द्र मोदी सरकार की न्यायिक चुनौतियां और धनखड की अति सक्रियता के बीच टकराव हुआ होगा। न्यायपालिका के सामने नरेन्द्र मोदी ने पहले ही हथियार डाल चुके हैं। न्यायधीशों की नियुक्ति और न्यायालय से जुडे प्रबंधन विधेयक को सुप्रीम कोर्ट ने मनमाने ढंग से खारिज कर दिया था। जबकि संसद के दोनो सदनों ने और कई राज्यों के विधान सभाओं नेे उक्त विधेयक को पास किया था। सुप्रीम कोर्ट सरकार की सभी नीतियों और कार्यक्रमों की समीक्षा करती है, मनमाने फैसले देती है। सुप्रीम कोर्ट से लडने की राजनीतिक शक्ति नरेन्द्र मोदी के पास नहीं है। गलत और संविधान विरोधी, कानून विरोधी फैसले देने के खिलाफ भी केन्द्रीय सरकार कोई कार्रवाई नही कर सकती है। ऐसी मजबूरी में नरेन्द्र मोदी न्यायपालिका से लडने की जगह समझौतावादी रूख और राजनीति के सहचर बन गये। लेकिन हम धनखड की वीरिता, निडरता को अस्वीकार नहीं कर सकते हैं। धनखड की वीरता और निडरता हमेशा याद रहेगी।

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Wednesday, July 16, 2025

चुनाव आयोग से फर्जी और विदेशी ही डरते हैं

      




                              बिहार में तीस लाख फर्जी वोटर

      चुनाव आयोग से फर्जी और विदेशी ही डरते हैं
 
                       आचार्य श्रीहरि



बिहार में तीस लाख फर्जी वोटर? फर्जी वोटरों में बांग्लादेशी और पाकिस्तानी नागरिक भी शामिल हैं? चुनाव आयोग कितना निष्पक्ष है, नीयत समय पर मतदाता पुर्ननिरीक्षक का काम दक्षता पूर्ण ढंग से चुनाव आयोग कर पायेगा या नहीं? फर्जी नागरिकता रखने वालो पर सरकारी संहिताएं सक्रिय नहीं होनी चाहिए? फर्जी घोषित होने वाले लोगो पर आपराधिक मामला क्यों नहीं चलता चाहिए? बिहार ही क्यों बल्कि पूरे देश में फर्जी और विदेशी वोटरों को भारतीय वोटर सूची से बाहर करने की कार्रवाई होनी ही चाहिए। क्योंकि यह प्रसंग जनादेश को प्रभावित करने का है। दतलीय आधार पर इस प्रसंग को कदापि नहीं देखा जाना चाहिए। राष्ट्रहित को ध्यान मे रख कर फर्जी और विदेशी मतदाता को कानून का पाठ पढ़ाना चाहिए।
               बिहार विधान सभा चुनाव कई मायनों में महत्वपूर्ण होने वाले हैं। विवाद और तनाव अभी से ही शुरू है। अभी तो चुनाव की प्रकिया भी शुरू नहीं हुई है। पर वोटर लिस्ट को लेकर तनातनी है। तनातनी हिंसक भी है और खतरनाक है। दोनों गठबंधन के बीच इस पर शह-मात का खेल जारी है। इंडिया गठबंधन जहां लाखों लोगों को वोट के अधिकार से वंचित करने की साजिश को शाब्दिक हिंसा के माध्यम से उठा रहा है वहीं एनडीए गठबंधन का कहना है कि हमारी कोई भूमिका नहीं है, चुनाव आयोग का दायित्व है और चुनाव आयोग अपना दायित्व कुशलता के साथ निभा रहा है। फार्म भरने और जांच करने की कार्रवाई तेजी के साथ हो रहा है, करीब एक लाख बीएलओ इस प्रक्रिया में शामिल हैं। फार्म सत्यापित करने के लिए वोटरों को पूरा अवसर दिया जा रहा है, बीएलए डोर टू डोर जाकर फार्म की सच्चाई अंकित कर रहे हैं।
                लेकिन समय को लेकर चिंता और प्रश्न का उठना स्वाभाविक है। चुनाव आयोग का जागना एक अच्छी बात है। पर चुनाव आयोग थोड़ी देर कर दी। यही कार्रवाई छह महीने पहले होती तो राजनीतिक विवाद थोड़ा कम होता और चुनाव आयोग की साख भी बनी रहती। फिर भी चुनाव आयोग की कारवाई को रोकना या फिर उन पर कीचड उछालना सही नहीं है और साफ-सूथरी चुनाव प्रक्रिया को बाधित करने के प्रयास समझा जाना चाहिए। यह कौन नहीं जानता है कि बैलेड पेपर से चुनाव प्रक्रिया को समाप्त करने बाद आई इलेक्ट्रानिक्स मशीन चुनाव प्रक्रिया तो बेहतर है पर अभी भी फर्जी मतदान और फर्जी मतदाता का शोर थमा नहीं है, अगर निष्पक्ष और गहणता के साथ वोटर सूची की जांच हो तो फिर करोड़ो की संख्या में फर्जी वोटर मिलेगे, क्योकि अभी ऐसी कोई भी प्रकिया या फिर नियमावली नहीं बनी है कि फर्जी वोटरों पर कानूनी प्रकिया लगायी जानी चाहिए।
          सुप्रीम कोर्ट कोर्ट ने भी मान लिया कि मतदाता पुर्ननिरक्षण की प्रक्रिया नहीं रोकी जानी चाहिए, चुनाय आयोग के हाथ नहीं बांधे जाने चाहिए, चुनाव आयोग को स्वतंत्र भूमिका निभाने देनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट अगर किसी भी तरह के नियमावली का उल्लंघन माना होता तो फिर चुनाव आयोग पर बंदिशें लगा दिया होता। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को स्वतंत्रा देने का काम किया, इसका सीधा अर्थ होता है कि चुनाव आयोग का पुर्ननिरक्षण का कार्य ठीक ठाक है। यह अलग बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दूसरे दस्तावेज को भी मान्य प्रक्रिया का माध्यम बनाने के लिए कहा है। चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश मानते हुए दूसरे दस्तावेज को भी आधार मानने के लिए तैयार हो गया। अब वोटरों को आधार कार्ड, पैन कार्ड और अन्य पहचान पत्र दिखाने और प्रमाणित कराने की सुविधा मिल गयी। देश में ऐसा कोई अपवाद ही होगा जिसके पास आधार कार्ड, पैन कार्ड, जमीन का दस्तावेज या फिर घर का दस्तावेज नही होगा। सरकार ने आधार कार्ड की सुविधा सुलभ करा रखी है। ग्रामीण इलाकों में आधार कार्ड बनाने की सुविधा है। आॅनलाइन भी आधार कार्ड और पैन कार्ड बनाये जा सकते हैं। अगर फिर भी कोई मतदाता कहता है कि उसके पास कोई पहचान पत्र नही है तो फिर उसकी नागरिकता ही संदेह के घेरे में होगी, या फिर वह झूठ बोलता है।
          फिर चुनाव आयोग से डरता कौन है? सही वोटर चुनाव आयोग से डरेगा क्यों? डरेगा तो फर्जी वोटर और विदेशी घुसपैठिये ही डरेगा। बिहार के कटिहार, पूर्णिया, अररिया, मधुबनी, दरभंगा,  जिले में मतदाताओं की पारिस्थितिकी और उनकी राष्ट्रीयता पर प्रश्न चिन्ह हैं। क्योंकि ये सभी एकाएक मुस्लिम बहुलता के शिंकजे में कस गये और इन जिलों मतदाताओं  की संख्या भी बढ गयी थी। इसके पीछे सीधे तौर पर विदेशी घुसपैठ को जिम्मेदार मानते है। राजनीतिज्ञों के संरक्षण के कारण पूरे बिहार में विदेशी घुसपैठियों की जनसंख्या पारिस्थितिकी बदली है जिसके कारण जनादेश पर भी प्रभाव पडा है। बांग्लादेश में दस लाख से अधिक रोहिंग्या शरण लिये हुए थे। म्यामार में राष्ट्रीयता के आंदोलन के दौरान हिंसक और आतंकी रोहिंग्याओं को भागना पडा था, जिन्हें बांग्लादेश ने मुस्लिम आधार के कारण शरण देने का काम किया था। बांग्लादेश मे शरण लिये दस लाख से अधिक रोहिंग्याओं में से एक तिहाई बिहार की आबादी में घुसपैठ कर गये हैं। खासकर कटिहार और अररिया संसदीय क्षेत्र एकाएक मुस्लिम बहुलतावाले संसदीय क्षेत्र बन गये। कटिहार और अररिया संसदीय क्षेत्र अचानक कैसे मुस्लिम बहुलता वाला संसदीय क्षेत्र बन गये? इस पर शोध की जरूरत है। चुनाव आयोग को इस पर सर्वे के साथ ही साथ शोध कराने की जरूरत होनी चाहिए, बिहार और भारत सरकार को भी इस पर संज्ञान लेने की जरूरत है।
                   बिहार में कितने फर्जी वोटर हैं जिन पर वोट से वंचित होने और मतदाता सूची से नाम हटने की तलवार लटक रही है? संख्या जान कर हैरान और परेशान हो जायेंगे? हैरान और परेशान कैसे हो जायेंगे? इसलिए कि मतदान से वंचित होने वाले मतदाताओं की संख्या बहुत ही ज्यादा है। अनुमान और कल्पना से भी ज्यादा है। चुनाव आयोग का कहना है कि तीस लाख से अधिक लोगों का नाम मतदाता सूची से हटना तय है। कहने का अर्थ यह है कि वर्तमान में तीस लाख मतदाता सूची में ऐसे लोग शामिल हैं जो मतदाता सूची की अहर्ताएं ही नहीं रखते हैं और जिनकी नागरिकता ही संदेह के घेरे मे हैं। अगर सुप्रीम कोर्ट ने मतदाता पुर्ननिरक्षण के लिए आधार सहित अन्य माध्यमों को आधार बनाने के लिए नहीं कहा होता तो निश्चित मानिये कि यह संख्या भी छोटी पड जाती। क्योकि अगर दस्तावेजों आयु बीस साल मानी जाती तो फिर एक चैथाई लोग मतदाता सूची से बाहर हो जाते। अगर कोई व्यक्ति देश के किसी राज्य या फिर बिहार के किसी जिले से पलायन कर आया है तो फिर उससे संबंधित दस्तावेजों की आयु तो मान्य कसौटी पर होनी चाहिए। समस्या सरकारी कर्मचारियों की रिश्वत खोरी का भी है। रिश्वत खोरी अब चुनाव और चुनाव परिणाम को प्रभावित कर रही है। रिश्वत खोरी के कारण पाकिस्तानी, बांग्लादेशी और नेपाली भी भारत के नागरिक बन रहे हैं। अधिकारियों और कर्मचारियों को रिश्वत खोरी कराकर देशद्रोही लोग भारत के नागरिक बन जाते हैं और भारत के नागरिक के लिए अनिवार्य और मान्य दस्तावेज हासिल कर लेते हैं। बार-बार ऐसे आतंकवादी पकडे गये हैं जिनके मूल पाकिस्तानी होने, बांग्लादेशी होने के बावजूद उनके पास भारत के आधार कार्ड, वोटर कार्ड आदि दस्तावेज थे, जिनके माध्यम से पाकिस्तानी-बांग्लादेशी भारत में रहकर और भारत की अस्मिता को लहूलुहान करते हैं, भारत के जनादेश को कुचलते हैं और भारत मे आतंक की हिंसा फैलाते हैं।
                        दस्तावेज तो सही मिल सकते हैं। पर एक गांरटी नहीं मिल सकती है। किसी अन्य बूथ पर भी, किसी अन्य विधान सभा क्षेत्र में भी मतदाता सूची में नाम हो सकता है। अभी जो मतदाता सूची की प्रक्रिया है उसमे इस बात की पूरी संभावना होती है कि एक व्यक्ति का कई क्षेत्रों के मतदाता सूची में नाम दर्ज हो सकता है। कई लोग अपने पंसदीदा उम्मीदवार को चुनाव जीताने और अपने मजहब के समर्थकों को जीताने के लिए कई-कई क्षेत्रों के वोटर लिस्ट में अपना नाम दर्ज करा लेते हैं। अब चुनाव सुधार पक्रिया में सुधार, बदलाव और परिवत्रन की जरूरत है। जिस प्रकार में बैकों में व्यवस्था है कि सभी बैंकों के खातों की जानकारी आयकर विभाग और सरकार को मिल जायेगी उसी प्रकार से वोटर लिस्ट को आधार कार्ड से लिंक करा दिया जाना चाहिए। आधार कार्ड से लिंक कराने के बाद कई क्षेत्रों में अपना नाम दर्ज कराने वाले लोगों की पहचान आसानी से हो सकती है और उनके मतदाता अधिकार को शुन्य घोषित किया जा सकता है। अगर ऐसी व्यवस्था होती तो निश्चित मानिये कि विहार का वर्तमान वोटर सूची को लेकर विवाद और तनातनी की आवश्यकता ही नहीं पडती।


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Sunday, June 29, 2025

शंघाई चीनी समूह से भारत को अलग होना चाहिए

 


शंघाई चीनी समूह से भारत को अलग होना चाहिए


                       आचार्य श्रीहरि


चीन के वर्चस्व वाले शंघाई शिखर सहयोग संगठन की बैठक में भारत पराजित हुआ, भारत का अपमान हुआ, भारत को अकेला खड़ा होने के लिए मजबूर कर दिया गया। जबकि पाकिस्तान की जीत हुई, पाकिस्तानी आतंक की अवधारणा को समर्थन मिला, पाकिस्तान अपनी आतंकी अवधारणा का ढिढोरा कैसे नीं पिटता? चीन की चरणवंदना वाली बैठक और संगठन में भारत अकेला क्यों पडा, भारत की हार क्यो हुई, पाकिस्तान की जीत क्यों हुई, आतंक की अवधारणा क्यों प्रशंसित हुई? भारत का अगला कदम क्या होगा? क्या भारत शंघाई शिक्षर सहयोग संगठन की सदस्यता छोड़ सकता है? पाकिस्तान और चीन वाली चरणवंदना वाले संगठन में सदस्यता की अनिवार्यता पर विचार होना ही चाहिए।
                   शंघाई सहयोग संगठन का वर्तमन स्वरूप आतंकी है, हिंसक है, शांति विरोधी है और चीनी वर्चस्व वाला है। यह सब बेपर्द हो चुका है। क्योकि इसने भारत में विभत्स और खतरनाक आतंकी हमले पहलगाम का विरोध करने से इनकार कर दिया। जबकि पाकिस्तान के अंदर अस्मिताओं की लडाई को भी आतंक मानकर विरोध कर दिया गया। बलूचिस्तान में मानवाधिकार का घोर और हिंसक उल्लंघन के बाद भी पाकिस्तान की आतंकी अवधारणा को मान्यता मिली, प्रशंसित की गयी।
इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि शंघाई बैठक के बाद सामूहिक घोषणा पत्र सहमति नहीं बन सकी और भारत ने सामूहिक घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सीधे तौर पर कह दिया कि पहलगाम आतंकी हमले का विरोध न करना और पाकिस्तान के आंतरिक अस्मिता की लडाई को भी आतंक की परिभाषा के अंदर देखना और मानना घोर आश्चर्य की बात है, शघाई सहयोग संगठन की मूल घोषणाओं और मान्यताओं के खिलाफ है।
                   ऐसे देखा जाये तो शंघाई सहयोग संगठन के इतिहास में यह कलंकित करने वाली घटना है और अपने द्वारा स्थापित विकास, उन्नति और शांति को दफन करने वाली घटना है। इसके पूर्व इस संगठन में कभी भी ऐसा नही हुआ था कि सामूहिक घोषणा पत्र जारी नहीं हो सका और न ही इस पर सहमति बन पायी। इसके पूर्व दुनिया की समस्याओं और जटिलताओं पर घंघाई सहयोग संगठन की बैठक में गंभीर और सकारात्मक बहसें हुई थी ओर बहसों में मतभिन्नता होने के बावजूद भी सहमति बनती रहती थी और दुनिया के जनमत को अपनी ओर आकर्षित करती रहती थी। अमेरिका ने कभी इस संगठन के खिलाफ अपना भडास निकाला था और इस संगठन को खतरनाक भी बताया था, अमेरिकी हितों के खिलाफ बताया था। सबसे बडी बात यह है कि शंघाई सहयोग संगठन ने कभी भी अपने सहयोग, शांति और विकास की रणनीति पर चला नहीं, क्योकि चीन और रूस खुद ही हिंसक देश है, जिन्होंने खुद अपने पडोसियों और दुनिया को दमन किया है, पीडित किया और संहार भी किया है फिर सहयोग और शांति की उम्मीद कहां से बनती है? सिर्फ और सिर्फ शंघाई सहयोग संगठन एक प्रहसन है, चीनी हितों की रक्षा करने वाला एक मोहरा है, हथकंडा है।
                   भारत इस संगठन का सदस्य ही क्यों बना था?  भारत ने 2017 शंघाई सहयोग संगठन का सदस्य बना था। इसके पूर्व भारत पर्यवेक्षक देश के रूप में शामिल होता रहा था। नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में ही यह आत्मघाती नीति बनी थी। नरेन्द्र मोदी को किसने यह सलाह दी थी कि शंघाई सहयोग संगठन में शामिल होना एक श्रेयकर कदम होगा। यह एक आत्मघाती कदम था और भारत के हितों को नुकसान पहुंचाने वाला कदम था। इसके लिए नरेन्द्र मोदी को दोषी ठहराया जा सकता है। शंघाई चीन का एक शहर है और इस शहर पर चीन बहुत ही नाज करता है और दुनिया को शंघाई के नाम पर चमत्कृत करता है। शंघाई को मैनचेस्टर भी कहा जाता है। यह एक औद्योगिक नगरी भी है, यहां पर सस्ती और व्यवस्थित फैक्टिरियां हैं जो उत्पादन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण और अग्रणी मानी जाती है। शंघाई की फैक्टिरियां में बनने वाली वस्तुओं के लिए बाजार के निर्माण के लिए भी चीन की यह नीति थी। चीन दुनिया में सस्ती समानों के निर्माण में अग्रणी है। चीन अपने हितों की रक्षा के लिए शंघाई जैसे छोटे-छोटे समूहों में मोहरा और हथकंडा खडा करता रहा है।
             चीन हमारा स्थायी दुश्मन है। चीन हमारा संहार चाहता है। चीन ने हमारे खिलाफ एक मजबूत गोलबंदी बनायी हुई है। दुनिया के हर मंच पर चीन हमारा विरोध करता है और हमें अपमानित करता है। शंघाई सिर्फ और सिर्फ चीनी वर्चस्व वाला संगठन है। फिर नरेन्द्र मोदी की सरकार ने कैसे यह समझ लिया कि शंघाई सहयोग संगठन भारत के लिए एक अवसर है, समृद्धि के प्रतीक है, उन्नति के लिए सहायक सिद्ध होगा। चीन ने भारत को मूर्ख भी बनाया है। भारत भी मूर्ख बन गया और वह भी आसानी स ेमूर्ख बन गया। चीन ने प्रस्ताव दिया था कि भारत इस संगठन की अध्यक्षता करे। चीन की इच्छानुसार भारत 2023 में इस संगठन का अध्यक्ष था। चीन को यह मालूम था कि भारत की अध्यक्षता करने पर भी उसके हित सुरक्षित रहेंगे, क्योंकि भारत अध्यक्ष होने के बावजूद कुछ नहीं कर सकता है, शंघाई सहयोग संगठन के नियमावली और मूल चरित्र में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता है। वर्चस्व तो उनका ही है, मूल चरित्र पर परिवर्तन के लिए जरूरी वोट भी भारत के पास नहीं है। भारत तो अकेला है। अन्य सदस्य देश जैसे पाकिस्तान,कांजाकिस्तान, किर्गिस्तान, रूस और ताजिकिस्तान कभी भारत का साथ नहीं देंगे। पाकिस्तान, काजीकिस्तान, किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान एक तरह से चीन के ही गुलाम है। जहां तक रूस का प्रश्न है तो फिर ब्लादमिर पुतिन की पैंतरेबाजी को कौन नही जानता है? सोवियत संघ की तरह रूस विश्वसनीय नहीं है। अभी-अभी पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में पुतिन ने भारत का नैतिक समर्थन करने से भी इनकार कर दिया था। जब भारतीय हित की सुरक्षा की बात आयेगी तब पुतिन और उनका रूस शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में चुप्पी साध साध लेंगे। रूस ने अभी-अभी समाप्त हुई शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में भारत की चिंता का समर्थन करने की जरूरत भी नहीं समझी।
                   क्या भारत अपमानित होने के लिए शंघाई समूह की सदस्या बनाये रखें हुए है?                  शंघाई सहयोग संगठन में पाकिस्तान की उपस्थिति भी चिंताजनक है, मूल भावना और मूल चरित्र के विपरीत है और दोहरे चरित्र का परिचायक है। यह कैसी मूल भावना है कि एक हिंसक और आतंकी देश को सदस्य बना देना। कौन नहीं जानता है कि पाकिस्तान का असली चरित्र कैसा है, उसकी भूल भावना और मूल चरित्र कैसा है? पाकिस्तान एक आतंकी देश है, एक हिंसक देश है। यह सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में आतंक की आउटसोर्सिंग की है, आतंक की आउट सोर्सिंग कर दुनिया की शांति और सदभाव को नुकसान पहुंचाया है। अभी-अभी ज्ञात हुआ है कि चीन ने पाकिस्तान की जासूसी मदद की थी। पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ने रहस्योदघाटन किया है कि चीन ने सेटेलाइट जानकारी पाकिस्तान को उपलब्ध करायी थी और पाकिस्तान ने इस जानकारी को हमले में उपयोग किया था। अभी-अभी पाकिस्तान और चीन की एक और जुगलबंदी देखने को मिली है। शघाई सहयोग संगठन की बैठक में चीन ने पाकिस्तान को साथ दिया और कह दिया कि पाकिस्तान के अंदर होने वाले आतंकी घटना घातक और मानवता के प्रति अपराध है। जबकि पाकिस्तान एक खुद आतंकी देश है। पाकिस्तान और चीन की जुगलबंदी का ही प्रमाण है कि पहलगाम की आतंकी घटना के खिलाफ प्रस्ताव पारित करने शंघाई सहयोग संगठन ने इनकार कर दिया था। जबकि भारत ने पहलगाम आतंकी घटना पर निंदा प्रस्ताव पारित कराने की पूरी कोशिश की थी, पर किसी सदस्य देश ने भारत का साथ नहीं दिया।
                भारत को अपमान से बचना है, भारत को अपने हितों को सुरक्षित रखना है, भारत अगर पाकिस्तान को बेनकाब करना चाहता है और उसे आईना दिखाना चाहता है तो फिर चीन और पाकिस्तान के खिलाफ तन कर खडा होना होगा। शंघाई समूह जैसे चीनी और पाकिस्तानी मूल भावना के प्रतीकों से अलग होना ही चाहिए। शंघाई चीनी समूह से भारत को अलग हो जाना चाहिए। भारत अपना पैसा और समय शंघाई चीनी समूह पर बेअर्थ खर्च कर रहा  है

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Thursday, June 19, 2025

जिहाद की डाॅक्टरी पढाता है ईरान







               जिहाद की डाॅक्टरी पढाता है ईरान
                                  जिहाद पढ़़कर आते हैं और बनते हैं जिहादी


             
                              ( आचार्य श्रीहरि )


ईरान से पन्द्रह सौ मुस्लिम छात्रों को भारत सरकार वापस ला रही है। कई विमान आ चुके हैं। कई आने वाले हैं। इनको लाने के लिए करोडों रूपये खर्च होंगे। ये सभी मुस्लिम छात्र ईरान के अंदर खतरे में थे और इन पर इस्राइल की मिसाइलें गिरने का डर था। इस्राइल से इनके जान को खतरा था। इस्राइल के मिसाइल हमलों से ईरान की राजधानी तेहरान और अन्य प्रमुख शहर कब्र बन रहे हैं। किसी भी देश का फर्ज बनता है कि वह अपने नागरिकों को खतरे की जगह से सकशुल बाहर निकाले और उनको सुरक्षित जगह पहुंचाये। इस सिद्धांत पर भारत सरकार का कदम सराहनीय है। पर एक प्रश्न यह उठता है कि क्या भस्मासुरों को वापस लाना, क्या हिंसक और आतंकी मानसिकता के लोगों को वापस लाना जैसे कदम मुसीबतों का आमंत्रण देना नहीं है, अपना ही संहार करने जैसा नहीं है, हिंसा और आतंकवाद को समृद्ध करना नहीं है? सच तो यह है कि ईरान जिहाद की डाॅक्टरी पढाता है और ईरान के विश्वविद्यालयों से निकले डाॅक्टर धारी जिहाद जैसे इस्लामिक कार्यो में सक्रिय रहते हैं, हमास, हिजबुल्लाह और हूती, आईएस जैसे मुस्लिम आतंकी संगठनो के लिए हथियार का काम करते हैं।
                  भारत ही दुनिया का एक मात्र देश है जो अपने भस्मासुरों, आतंकियों और हिंसकों तथा मजहबी तौर पर पागल मानसिकता के लोगों को विदेशों से वापस लाने और उनकी चरणवंदना करने में लगा रहता है, करोडों और अरबों रूपये खर्च कर देता है। यह विचारण करने की जरूरत भी नहीं समझा जाता कि जिनको वापस देश लाया जा रहा है उनकी पृष्ठभूमि क्या है, जिनकी कहीं कोई आतंकी और हिंसक काफिर मानसिकता तो नहीं है, कहीं ये भारत विरोधी अभियान और मानसिकता के सहचर तो नहीं रहे हैं। ईरान से भारत लाये जा रहे पन्द्रह सौ छात्रों में अधिकतर कश्मीरी छात्र हैं जो कश्मीर से इस्लामिक शिक्षा ग्रहण करने के लिए ईरान गये थे। कश्मीर ही वह जगह है जहां से मुसलमानों ने हिंसा के बल पर हजारों हिन्दुओं को कत्ल कर दिया और लाखों हिन्दुओं को कश्मीर से भगा दिया। कश्मीर में इस्राइल विरोधी मानसिकताओं का बाजार लगा हुआ है। कश्मीर में इस्राइल के खिलाफ रोज प्रदर्शन हो रहे हैं और मुस्लिम यूनियन की हिंसक जिहाद जारी है। मुस्लिम देशों से पढकर आने वाले मुस्लिम छात्र भारत विरोधी गतिविधियों और पाकिस्तान परस्ती अभियानों में लगे रहते हैं।
             ईरान पढने जाते ही क्यों हैं? ईरान की एमबीबीएस डिग्री और अन्य डिग्रियां कौन सी समृद्ध होती हैं? एक जिहाद की मानसिकता से ग्रसित देश में शिक्षा का कौन सा वतावरण समृद्ध होता है? जिहाद की मानसिकता से ग्रसित देश में आधुनिक ज्ञान और विज्ञान की उम्मीद ही बेकार है, बैमानी है, खुशफहमी है। मालूम यह हुआ कि जो पन्द्रह सौ छात्र लाये जा रहे है वे अधिकतर मेडिकल की शिक्षा लेने गये थे। कहने का अर्थ यह है कि पे सभी एमबीबीएस की डिग्री लेने गये थे। ये एमबीबीएस की डिग्री लेने के बाद भारत में डाॅक्टर बन जायेंगे। अधिकतर छात्र जम्मू कश्मीर का प्रतिनिधित्व करते हैं। जम्मू-कश्मीर में एक तरह से जिहाद चल रहा है, अपने बच्चों को ईरान सहित अन्य मुस्लिम देशों में भेजों और इंजीनियर-डाॅक्टर बनाओ। ईरान और अन्य मुस्लिम देशों में भारत के मुस्लिम बच्चों को रियायती दर पर मेडिकल शिक्षा उपलब्ध कराया जाता है। एक सूत्र का कहना है कि मुश्किल से 20 लाख रूपये में मेडिकल की शिक्षा हासिल हो जाती है। सबसे बडी बात यह है कि कई मुस्लिम संगठन ऐसे हैं जो ईरान और अन्य मुस्लिम देशों में मेडिकल-इंजीनियरिगंग करने वाले मुस्लिम छात्रों को धन उपलब्ध करते हैं। मेडिकल शिक्षा के लिए भारत में कमसे कम एक करोड तो फिर अमेरिका और यूरोप में करोड़ों रूपये खर्च करने पडते हैं।
                    ईरान सहित अन्य मुस्लिम देशों में मेडिकर और इंजीनियरिंग की शिक्षा के दौरान जिहाद की भी शिक्षा दी जाती है। इस्लाम में जिहाद अनिवार्य है। काफिर मानसिकता भी जागजाहिर है। इस्लाम और कुरान कहता है कि काफिरों के प्रति निष्ठुर रहो, उनसे दोस्ती कर विश्वासघात करो, उनकी हत्या करो, इनकी पत्नियों को रखैल बनाओ। काफिर उसे कहते हैं जो इस्लाम को नही मानते हैं। एक मुसलमान के लिए हिन्दू, ईसाई यहूदी सब काफिर हैं। इसीलिए काफिर देश में इन्हें इस्लाम का शासन चाहिए। दुनिया में हर जगह सिर्फ मुसलमानों को ही अन्य सभी धर्मो से समस्या भी इसी कारण होती है, इनका आतंक और हिंसा के पीछे की कहानी भी यही है। ईरान एक घोर इस्लामिक मान्यताओं का देश है। ईरान अपने देश में पढने वाले हर छात्र को इस्लाम की हिंसक मान्यताओं पर सौ प्रतिशत खरा उतरने का संदेश देता है और पालन करने की अनिवार्यता भी सुनिश्चित करता है। कहने का अर्थ यह हुआ कि ईरान से वापसी करने वाले छात्र पूरी तरह से जिहादी रंग में रंगे होंगे।
                        ये मुस्लिम छात्र कोई पढाकू भी नहीं होते हैं, कोई ज्ञानी भी नहीं होते हैं। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के भी सहचर नहीं होते हैं,  कोई विशेष प्रतिभाशाली भी नहीं होते हैं। फिर क्या होते हैं? ये सिर्फ और सिर्फ अनपढ होते हैं, मुल्ला संस्कृति के होते हैं। अधकचरे दिमाग के होते हैं। जिन्हें भारत में मेडिकल और इंजीनियरिंग कालेजों में जगह नहीं मिल पाती हैं, योग्य नहीं समझा जाता है वैसे ही छात्र मुस्लिम इेशों में जाते हैं। जहां पर प्रतियोगिता का कोई स्थान नही होता है, प्रतिभा का कोई स्थान नहीं होता है, चयन की कोई मानक प्रक्रिया नहीं होती है। शैक्षणिक योग्यता का भी कोई परीक्षण नही होता है। शैक्षनिक योग्यता के कागजों को बिना परीक्षण कराये स्वीकार कर लिया जाता है। भारत में मेडिकर-इंजीनियरिंग शिक्षा के लिए अयोग्य छात्र मुस्लिम देशों में योग्य कैसे बन जाते हैं। इस पर भारत सरकार को संज्ञान लेने की जरूरत है।
                 सबसे बडी बात यह है कि ये मुस्लिम देशों में शिक्षा ग्रहण करने के दौरान भारत की ही कब्र खोदते हैं, भारत को एक हिंसक देश बताते हैं, भारत में इस्लाम खतरे का नारा लगाते हैं, पाकिस्तान परस्ती दिखाते हैं। ऐसा कई उदाहरण सामने हैं। शेख अतीक का प्रकरण बहुत ही घातक और जिहादी है। यह प्रकरण सुषमा स्वरराज से भी जुडा हुआ है। सुषमा स्वराज उस समय भारत के विदेश मंत्री थी। फिलिपीन से शेख अतीक नामक मुस्लिम छात्र ने सुषमा स्वराज से मदद मांगी थी और नया पासपोर्ट जारी करने की मांग की थी। शेख अतीक ने अपनी राष्ट्रीयता कश्मीरी बतायी थी, उसकी सोशल मीडिया प्रोफाइल पाकिस्तान परस्ती से भरी पडी थी। इस पर सुषमा स्वराज ने उससे कहा था कि भारतीय पासपोर्ट सिर्फ और सिर्फ भारतीय राष्ट्रीयता का प्रतिनिधित्व करने वालों के लिए होता है। फिर जान बचाने के लिए शेख अतीक ने अपने आवेदन में भारतीय लिखा था फिर सुषमा स्वराज ने उसकी मदद की थी। ईरान से वापसी करने वाले मुस्लिम छात्रों को भी भारत तभी याद आता है जब वे संकट में होते हैं, नही ंतो ये शायर मोहम्मद इकबाल की तरह जिहादी होते हैं और कहते हैं कि हम हैं मुसलमां और सारा जहां हमारा। शायर मोहम्मद इकबाल ने लिखा था कि सारे जहां से अच्छा हिन्दूस्ता हमारा, जब उस पर जिहादी रंग चढा तब उसने लिखा था कि हम हैं मुसलमां और सारा जहां हमारा। यानी कि यह धरती और आसमान सिर्फ मुसलमानों के लिए है।
                      छात्र भारत लौट कर करेंगे क्या? ये इस्लामिक जिहाद के ही सहचर बनेंगे। ईरान में मजहबी शिक्षा और मानसिकता से ग्रसित ज्ञान का दुरूपयोग हिन्दुओं के संहार  में करेंगे और इस्लाम के प्रचार में लगायेंगे। अमेरिका में पढने वाले कई भारतीय मुस्लिम छात्र इस्राइल के खिलाफ हिंसक गतिविधियो में शामिल रहे हैं और अमेरिका के हितों का नुकसान पहुंचाने के साथ ही साथ भारत के हितों की भी कब्र खोदते हैं। इस्राइल के साथ हमारी सामरिक दोस्ती है, समझदारी भी है। अमेरिका ने ऐसे मुस्लिम छात्रो को निकालना शुरू कर दिया है, दंडित करना शुरू कर दिया है। भारत को भी अब मुस्लिम छात्रों के लिए कोई न कोई बंधन बनाना होगा और निर्देश देना होगा। खासकर मुस्लिम देशों की शिक्षा को मान्यता से वंचित करना होगा। उचित चयन प्रक्रिया का पालन नहीं करने वाले देशों के शिक्षा को शून्य घोषित करना होगा।


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Sunday, June 15, 2025

ईरान ही है दोषी और हिंसक


                 


                       ईरान ही है दोषी और हिंसक
 
                              आचार्य श्रीहरि



ईरान और इस्राइल युद्ध की कसौटी पर तीन प्रश्न अति महत्वपूर्ण हैं, जिन्हें जानना जरूरी है, तभी हम ईरान और इस्राइल युद्ध की आवश्यकता और अनावश्यकता को चिन्हित कर सकते हैं। सबसे पहले तो इस अवधारणा को भी अस्वीकार कर लीजिये कि हमेशाा शांति और सदभाव से ही किसी भी समस्या का समाधान हो सकता है। कभी-कभी हिंसा के बल पर भी शांति और सदभाव सुनिश्चित होती है। इसका सीधा उदाहरण अमेरिका और जापान है। दूसरे विश्वयुद्ध में जापान हिलटर के समूह मे था और जापान ने बिना कुछ सोचे-समझे अमेरिका पर हमला कर दिया, जबकि अमेरिका की तटस्थता थी और वह प्रत्यक्ष तौर पर दूसरे विश्व युद्ध में शामिल नहीं था, अप्रत्यक्ष तौर पर वह ब्रिटेन को जरूर मदद कर रहा था, ब्रिटेन को हथियार आपूर्ति कर रहा था। अमेरिका ने अपने उपर हमले का बहुत बडा प्रतिकार लिया, जापान के दो प्रमुख शहरो नागाशाकी और हिरोशिमा पर परमाणु बम गिरा दिया। भयंकर रक्तपात हुआ और फिर जापान अहिंसक देश बन गया। हथियार त्याग दिया, युद्ध छोड दिया, सेना रखना बंद कर दिया, सिर्फ रचनात्मकता अपनायी औैर अपने को आर्थिक शक्ति बनाया। आज जापान दुनिया की छठे नंबर की अर्थव्यवस्था है। जापान और अमेरिका आज अमिट मित्र हैं। कहने का अर्थ यह है कि दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति कोई गांधी-बुद्ध के अहिंसक उद्घोषों नहीं हुई थी, शांति की अपील से नहीं हुई थी, कोई सार्थक संवाद और समझौते से नहीं हुई थी बल्कि अमेरिका के बम वर्षा से उत्पन्न कारणों से हुई थी, जापान, जर्मनी, इटली के मित्र देशों की पराजय और विनाश हुई थी। इसके पीछे हथियारों की हिंसा थी, रक्तपिशाचुओं के संहार के पीछे भी जवाबी हिंसा थी, जवाबी युद्ध था। सबसे खास बात यह है कि दुनिया भर की मुस्लिम आतंकी संगठन जवाबी और प्रतिकार वाली हिंसा से ही नियंत्रित रहते हैं।
                             अब यहां यह प्रश्न उठता है कि तीने अतिआवश्यक प्रश्नों की कसौटी क्या है? एक प्रश्न ईरान का आतंकी संगठनों की मददगार और संरक्षणकारी हमले की भूमिका और दूसरा प्रश्न अल्ला की मर्जी और तीसरा प्रश्न इस्लाम काफिर मानसिकताएं। क्या ईरान की आतंकी भाषा और समर्पण ओझल है, अप्रत्यक्ष है? साक्षात है और प्रत्यक्ष है। हमास को उसने संरक्षण नहीं दिया था क्या? हमास को उसने आर्थिक् सहायता नही दी थी क्या? हमास को हमले के लिए हथियार ईरान ने नहीं दिये थे क्या? इस्राइल के ढाई हजार से अधिक निर्दोष लोगों को गाजर मूली की तरह काटने, बच्चियों और महिलाओं के साथ बलात्कार करने, महिलाओं के शवों के साथ बर्बरता करने और महिलाओं के शवों के साथ बलात्कार करने जैसी घृणात्मक और मानवता को शर्मसार करने वाली मानसिकताओं का ईरान ने समर्थन नहीं किया था क्या? हूती आतंकियो को खडा कर समुद्री मार्गो को हिंसा और आतंक का पर्याय ईरान ने नहीं बनाया है क्या? हूतियों और अन्य मुस्लिम आतंकियों को ललकार और राॅकेट लांचर उपलब्ध करा कर ईरान ने समुद्र मार्ग को न केवल प्रभावित कर दिया बल्कि खर्चीला भी बना दिया। समुद्री मार्ग बदलने से मानवीय जरूरतों की समस्याएं खडी हैं, महंगी हुई हैं, इसका दुष्प्रभाव सिर्फ इस्राइल को उठाना पडा है, ऐसा नहीं है, इसका दुष्प्रभाव तो अमेरिका और भारत पर भी पडा है। अमेरिका को समुद्री मार्ग पर जगह-जगह नौ सेनाएं खडी करनी पडी है, भारत को भी अपने समुद्री जहाजों की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त नौ सेनाओं की तैनाती करने के लिए बाध्य होना पडा है।
             इस्लामिक हिंसक व वर्चस्व की मानसिकता का ही प्रतिनिधित्व ईरान करता है। किसी भी मुसलमान से यह पूछ लीजिये फिर उनका जवाब सुन लीजिये। किसी मुसलमान से पूछिये कि हमास और अन्य मुस्लिम आतंकी संगठन किसकी मर्जी से हिंसक शक्ति रखते हैं फिर इनका जवाब होता है कि ये अल्ला की शक्ति है, अल्ला की शक्ति और मर्जी के बिना पता भी नहीं हिल सकता है। फिर इनसे पूछिए कि जब अल्ला की शक्ति सर्वश्रेष्ठ और अद्वितीय है और अल्ला की मर्जी के बिना पता भी नहीं हिल सकता है तो फिर ईरान की बर्बादी की कहानी इस्राइल किसकी मर्जी से लिख रहा है, इस्राइल की मिसाइलें किसकी मर्जी से ईरान के सैनिक कंमाडरो और परमाणु बमों का संहार कर रही हैं, तेल भंडारो पर प्रहार कर रही हैं? क्या यह सब इस्राइल अल्ला की मर्जी से कर रहा है? अगर इस्राइल अल्ला की मर्जी के खिलाफ यह सब कर रहा है तो फिर निश्चित तौर पर अल्ला की शक्ति बडी नहीं है, इस्राइल की ही शक्ति बडी है और प्रहारक भी है। ईरान की काफिर सोच के कारण ही उसकी इस्राइल दुश्मनी है। कुरान में काफिर को मारने, धमकाने और उनकी बहू-बेटियो की इज्जत लूटने और रखैल बनाने का आदेश है। इस्राइल अगर काफिर देश नहीं होता तो फिर ईरान का दुश्मन भी इस्राइल नहीं होता। ईरान फिर हमास और हिजबुल्लाह को इस्राइल के खिलाफ सक्रिय ही नहीं रखता और न ही हथियार और आर्थिक मदद देता। अगर इस सिद्धांत की परीक्षण आप करना चाहते हैं तो फिर किसी भी मुसलमान से पूछ लीजिये कि कुरान में काफिर को मारने का अधिकार है, और ईरान भी काफिर इस्राइल से जंग लड रहा है? इसके उत्तर में चालाक लोग चुप्पी साध लेंगे और अन्य मुस्लिम इसके समर्थन में जवाब देंगे। भारत के कश्मीर के पहलगाम में आतंकियों को इस्लाम की प्रहरी बताया गया था, मुस्लिम आतंकियों द्वारा धर्म पूछ पूद कर मारने की घटना को इस्लामिक पुण्य करार दिया गया था। ऐसे बयान और ऐसे वीडीओ सोशल मीडिया पर हजारों की संख्या में थे। कुछ साल पहले मलेशिया के शासक ने इस्राइल का नामोनिशान मिटाने का आह्वान मुस्लिम दुनिया से किया था। हालांकि बाद में मलेशिया के सुर बदल गये, ईरान की तरह हिंसक होना मलेशिया ने इनकार कर दिया था। अभी-अभी भारत और पाकिस्तान युद्ध को ही कसौटी पर देख लीजिये। फिर आपको काफिर मानसिकता की हिंसक गोलबंदी दिखायी देगी। तुर्की और अजरबैजान ने काफिर मानसिकता के कारण ही पाकिस्तान का साथ दिया और भारत के खिलाफ युद्ध लडने का काम किया।
                   फिलिस्तीन मुसलमानों की धरती है, यह मानसिकता भी आतंकी और हिंसक है और धृणित है। यह मानसिकता ही मुस्लिम-यहूदी युद्ध का कारण है और पर्याय है। फिलिस्तीन कभी भी मुस्लिमों की धरती नहीं रही है। इस्लाम की स्थापना कब हुई है?यहूदियों की स्थापना के कई सौ साल बाद इस्लाम का उदय हुआ है। फिलिस्तीन में यहूदियों का राज था और यरूशलम में यहूदी और ईसाई रहते थे। इस्लाम और यहूदियों के बीच कबीला युद्ध हुए। मुसलमानों ने फिलिस्तीन पर कब्जा कर लिया। यहूदियों को अपनी भूमि पर लौटने और अपना देश बनाने का अधिकार था। अमेरिका और यूरोप की मेहरबानी हुई और फिर आगे की कहानी स्पष्ट है। आज मुसलमानों को फिलिस्तीन में यहूदियों के साथ रहना पसंद नहीं है। जैसे भारत में मुसलमानों ने हिन्दुओं के साथ रहना पसंद नहीं किया था, पाकिस्तान अलग देश बनाया था और अब भारत में हिन्दुओं का संहार भी कर रहे हैं।
                     ईरान से इस्राइल को अस्तित्व खतरा है। ईरान में मजहबी तानाशाही है। ईरान में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सिर्फ हाथी के दांत होते हैं, खिलौने होते हैं, मनोरंजन के पात्र होते हैं। असली सत्ता मौलवी की होती है। मौलवी खामनेई के पास ही ईरान की असली सत्ता है। ईरान का परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण किसी भी स्थिति में नहीं है। ईरान इस्राइल और अमेरिका के विनाश के लिए ही परमाणु बम हासिल करना चाहता है। जिस तरह इस्लामिक आतंकियों की पहुंच अमेरिकी विमानो तक हुई और फिर मुस्लिम आतंकियों ने अमेरिकी वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हमला कर उसके वैभव और समृद्धि का नामोनिशान मिटा दिया था उसी प्रकार अगर ईरान ने परमाणु बम हासिल किया तो फिर परमाणु बम तक पहुंच हमास और हिज्जबुल्लाह जैसे मुस्लिम संगठनों की होगी फिर इस्राइल का नामोनिशान मिटना तय है। इसलिए इस्राइल का प्र्रहार और प्रतिकार अनिवार्य है। यह भी तय है कि इस्राइल किसी भी स्थिति मे ईरान की हिंसक नीति का दमन कर ही दम लेगा। ईरान की बर्बादी भी तय है। ईरान सयंम से रहें और अनावश्यक हिंसा और युद्ध के लिए कारण न बनें। लेकिन ईरान अब सिर्फ और सिर्फ अपनी बर्बाद की कहानी खुद लिख् रहा है।




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